रविवार, 28 नवंबर 2010

उत्सधर्मिता और मुंह बाये बाजार

हम जरूरत से ज्यादा उत्सवधर्मी हो चले हैं। सुख हो, दुख हो हम पूरी शिद्दत से एंज्वॉय करते हैं। हम बाजार की लत लग चुकी है। हम बाजार बन चुके हैं-हमेशा गुनगुनाने वाला, हमेशा खाने वाला, हमेशा चमकने वाला, अपनी धुन में मस्त रहने वाला।

पिछले दो दशकों से विश्व स्तर पर बाजारवादी ताकतें अपने जिस एजेंडे में जुटी हैं, अब उसका असर कायदे से दिखने लगा है। मैं महानगरों की बात नहीं करता, गोरखपुर जैसे कस्बाई दिल-दिमाग वाले शहर में पिछले दस सालों में जो तेजी आई है, मैं उसी के सापेक्ष पूरे देश के कस्बाई बाजारों की कल्पना कर सकता हूं। घर में बने व्यंजन खाने और रात दस बजे तक चादर ओढ़कर सोने वाला शहर बाजार के प्रभाव में आकर बदल गया है। शहर में अब सिटी मॉल है, बड़े शॉपिंग कॉम्प्लेक्स हैं, सिनेप्लेक्स हैं और इसके साथ ही है उस आधुनिकता का बोध जो चौबीसों घंटे दिल्ली, मुंबई जैसे महानगरों के मुंह ताकता रहता है। यहां का युवा अब महंगे ब्रांडेड कपड़े और जूते पहनने लगा है, कॅरियर को लेकर उसकी उतनी ही बड़ी महत्वाकांक्षाएं हैं। उसके राजनितिक सरोकार भी अब उतने ही बौने हो चले हैं, जितने किसी सूटेड-बूटेड, मल्टीनेशनल में काम करने वाले के। उसे हर वक्त चाहिए तो बस चमकता बाजार, जहां वह कुछ खरीदने के लिए खड़ा हो सके।

हां, तो मैं बात कर रहा था गोरखपुर जैसे कस्बाई दिलो-दिमाग वाले शहर में बाजार के विस्तार की। यहां छोटे से छोटा फेस्टिव सीजन सोने-चांदी और गारमेंट का लगभग एक अरब का कारोबार करता है। एक दशक में दुकानों की तादाद बढ़ी और इसी के साथ शहर के युवा की सामाजिक-राजनीतिक सोच-प्रतिबद्धता घुटनों रेंगने लगी। अब शहर का युवा आंदोलित नहीं होता, विरोध नहीं करता, आवाज नहीं उठाता, बोलता नहीं--अच्छा खाता है, अच्छा सोता है, अच्छे सपने देखता है। क्यों, क्या कहेंगे आप?

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