मंगलवार, 23 नवंबर 2010

एक बंदर शहर के अंदर

मंगलवार की सुबह उस बंदर ने शहर के कुछ बंदरों को खूब नचाया। तरह-तरह के करतब दिखाए, उछला-कूदा और खीसें निपोरकर बकबक भी की। शहर के बंदर पूरी तरह उस मेहमान बंदर के कदमों में बिछे थे, उसका साथ पाकर गदगद थे। होता भी क्यों नहीं, उस बंदर की टीआरपी जो हाई थी। नेशनल मीडिया में वह बंदर रोज नए करतबों के साथ अवतरित होता है, देश-विदेश के हालात पर अपनी राय देता है। हर समस्या का उसके पास सिर्फ एक समाधान होता है-उसकी तरह उछलो-कूदो, लंबी-लंबी सांसें लो, फलां पैर उठाओ, फलां पैर मोड़ो आदि-आदि इत्यादि। उस बंदर के बस इतना कहने पर लोग उछल-कूद, नाच-गाने शुरू कर देते हैं--वह बंदर खुद में बहुत बड़ा मदारी है।


आते हैं मुद्दे पर। निश्चित तौर पर उस बंदर की उछल-कूद एक अलग तरह का अनुभव देती है--खासकर उन्हें जो अपनी दिनचर्या में जड़ पड़े रहते हैं। लेकिन इस उछल-कूद का वाकई कोई फायदा है, या यह सिर्फ खाये-अघाये किस्म के लोगों का एक शगल, जिसका फायदा उठाकर न जाने कितने लोग टीआरपी कमाने में जुटे हैं। अगर यह उछल कूद इतनी ही कारगर है तो बंदर शतायु क्यों नहीं होते, जबकि उनकी ताउम्र यही गति होती है--उछल-कूद, फेफड़ों में वायु का तेजी से आवागमन इत्यादि। अगर यह तरीका इतना ही कारगर है तो निश्चित ही देश के हेल्थ सिस्टम को विश्राम देकर मरीजों को ऐसी उछल-कूद करने की सलाह दी जानी चाहिए। मेरी बात खत्म। कोई असहमति, सलाह हो तो स्वागत है।             

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