गुरुवार, 17 सितंबर 2009

खास खबर गोरखपुर : जहाँ पिछले 30 वर्षों से काल नहीं टला है

कुमार हर्ष

गोरखपुर से बीबीसी हिंदी डॉट कॉम के लिए

पिछले 30 वर्षों में हज़ारों लोगों की इंसेफ़्लाइटिस से मौत हो चुकी है
गोरखपुर के बाबा राघवदास मेडिकल कॉलेज के वार्ड नंबर 6 में बेड नंबर 26 के सिरहाने खड़े राजेश जायसवाल की आँखें सूज कर लाल हो गई हैं और बोलते हुए उनकी जुबान लड़खड़ाती है.

बिहार के पश्चिमी चंपारण ज़िले के दहवा गाँव के राजेश और उनकी पत्नी पिछली चार रातों से सो नहीं पाए हैं.

22 अगस्त को इंसेफ़ेलाइटिस की वजह से चढ़े तेज़ बुखार के बाद वो अपनी पाँच साल की बेटी अंशु को लेकर यहाँ आए थे.

23 अगस्त की सुबह अंशु हंसते हुए अपनी पापा को चिढा रही थी. इस आँख मिचौली में अचानक उसने आँखें मूंदी और तबसे 100 घंटों से भी ज्यादा वक्त बीतने के बाद भी वो होश में नहीं लौटी है.

ये सब बताते हुए राजेश की आवाज़ उनकी पत्नी की सिसकियों के आगे हार जाती है.

पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार और सीमावर्ती नेपाल के लोगों के लिए इलाज के सबसे बडे केंद्र राघवदास मेडिकल कॉलेज के लंबे गलियारों से होते हुए वार्ड नंबर 6 तक पहुँचने में आपको 70 सीढ़ियाँ चढ़नी होती हैं और तकरीबन हर सीढ़ी पर दुख की एक नई कहानी पसरी पड़ी है.

ये वे लोग हैं जो वार्ड के बाहर आकर अपनी नींद और थकान से बोझिल देह को कुछ मिनटों का आराम देने आए हैं.

अचानक कहीं से किसी के दहाड़ मार कर रोने की आवाज़ आती है, पर लोग उस तरफ दौड़ने की बजाए अपने-अपने बच्चों की ओर दौड़ते हैं. उसकी साँसें और धड़कन नापने लगते हैं.

थोड़ी देर बाद कोई बाप अपने हाथों में अपने बच्चे की लाश लिए वहां से निकल जाता है और लोग सोचते हैं कि काल टल गया. पर काल पिछले 30 वर्षों से टला कहाँ है?

ग़रीबी और पिछड़ेपन की मार झेलते इस इलाके में जानलेवा दिमाग़ी बुखार यानि इंसेफ़ेलाइटिस ने अब स्थाई बसेरा बना लिया है.

हर साल जुलाई से नवंबर तक हर रोज़ ये गलियारे किसी नौनिहाल की असमय मौत के खामोश गवाह बनते आए हैं. अब तो पूरे साल मौत का तांडव चलता है.

बदनसीब लोग

इस साल जनवरी से अब तक 753 मरीज यहाँ आ चुके हैं जिनमे से 180 अपनी जान गवां बैठे.

इनमें से 146 बच्चे थे. 77 ऐसे बदनसीब लोग थे जो बग़ैर डॉक्टर को बताए अस्पताल से चले गए.

इनमें से कई इसलिए चले गए क्योंकि उनके पास सिर्फ़ चंद रुपये बचे रह गए थे और बच्चे की निश्चित मौत को रोक पाने में खुद को बेबस पाते इन लोगों ने उसकी अंतिम विदाई को ठीक से अंजाम देने के लिए वो रुपए बचा लेना ज्यादा ज़रूरी समझा और उसे लेकर चुपचाप चले गए.

अस्पताल की पर्चियों में कुछ वर्ष पहले तक जापानी इंसेफ़ेलाइटिस यानी जेई, फिर वाइरल इंसेफ़ेलाइटिस यानी वीई और इन दिनों एक्यूट इंसेफ़ेलाइटिस

सिंड्रोम यानी ऐईएस के बतौर दर्ज हो रही इस बीमारी का सबसे क्रूर पहलू ये है कि इसमें मौत से बच जाने वाले 30 फ़ीसदी बच्चे किसी न किसी प्रकार की विकलांगता के शिकार हो जाते हैं और तब वह जिंदगी मौत से भी बदतर हालात पैदा कर देती है.

वर्ष 2005 में जब इस रोग का अब तक का सबसे भयावह हमला हुआ था, तबसे सरकार ने इसके उन्मूलन के लिए कई क़दम उठाए हैं जिनमें सबसे प्रमुख टीकाकरण अभियान था.

दावा किया गया कि टीकाकरण का लक्ष्य 96 फीसदी तक पूरा कर लिया गया है, पर मेडिकल कॉलेज की ज़मीनी हकीकत इस दावे को झूठा साबित कर देती है. जनवरी से अब तक यहाँ आए 753 मरीजों में से सिर्फ 17 को टीका लगा था.

इस बीमारी से निपटने की दूसरी बड़ी कवायद के बतौर यहाँ वायरोलॉजी लैब की स्थापना का काम शुरू किया गया था, हालांकि एक साल बीतने के बाद अभी भी ये लैब अपने परीक्षणों के लिए नेशनल वायरॉलोजी इंस्टिट्यूट पुणे पर निर्भर करता है.

नर्सों की कमी भी यहाँ एक बड़ी समस्या है हालांकि यहाँ के प्राचार्य डॉक्टर राकेश सक्सेना बताते हैं कि हाल ही में आज़मगढ़ मेडिकल कॉलेज से 21 नर्सों को बुलाए जाने के बाद हालात काबू में हैं और जल्दी ही कुछ और नर्सें आने वाली हैं.

इस साल मेडिकल कॉलेज प्रशासन ने दो नए एपिडेमिक वार्ड भी बनाए हैं.

अपनी बनावट, तकनीकी क्षमता और इंतज़ाम के कारण ये वार्ड इस बीमारी की भयावहता के खौफ़ को कम करते जरूर दिखते हैं मगर ये सवाल तब भी रह रह कर सर उठाता रहता है कि पिछले 30 वर्षों से साल दर साल नाम बदल बदल कर आती इस जानलेवा बीमारी की असली शिनाख्त आख़िर कब होगी.

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